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NCERT Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

by Sudhir
May 29, 2022
in 9th Social Science, Class 9th Solutions
Reading Time: 3 mins read
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NCERT Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास

Table of Contents

  • NCERT Solutions for Class 9 Social Science History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास
    • पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर
    • अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न (Extra Important Questions)
      • अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
      • लघु उत्तरीय प्रश्न

यहाँ हम  कक्षा 9 सामाजिक विज्ञान समाधान Class 9 Social Science Solutions  प्रदान कर रहे है. We are providing Class 9 NCERT Solutions in Hindi for History Chapter 8 पहनावे का सामाजिक इतिहास.

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अठारहवीं शताब्दी में पोशाक शैलियों और सामग्री में आए बदलावों के क्या कारण थे?
उत्तर:

  1. लोगों की आर्थिक स्थिति ने उनके वस्त्रों में अंतर ला दिया।
  2. स्त्रियों में सौन्दर्य की भावना ने उनके वस्त्रों में परिवर्तन ला दिया।
  3. समानता को महत्त्व देने के लिए लोग साधारण वस्त्र पहनने लगे।
  4. राजतंत्र व शासक वर्ग के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए।
  5. फ्रांसीसी क्रान्ति ने सम्प्चुअरी कानूनों को समाप्त कर दिया।
  6. फ्रांस के रंग लाल, नीला तथा सफेद, देशभक्ति के प्रतीक बन गए अर्थात् इन तीनों रंगों के वस्त्र लोकप्रिय होने लगे।
  7. लोगों की वस्त्रों के प्रति रुचियाँ अलग-अलग थीं।
  8. तंग लिबास व कॉर्सेट पहनने से युवतियों में अनेक बीमारियाँ तथा विरूपताएँ आने लगीं थीं।
  9. यूरोप में सस्ते व अपेक्षाकृत सुंदर भारतीय वस्त्रों की माँग बढ़ गयी थी।
  10. फांसीसी क्रान्ति के उपरान्त फ्रांस में महिलाएँ और पुरुष दोनों ही आरामदेह व ढीले-ढाले वस्त्र पहनने लगे थे, जिनका अन्य यूरोपीय देशों पर प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 2.
फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून क्या थे?
उत्तर:
सन् 1294 से 1789 ई0 की फ्रांसीसी क्रान्ति तक फ्रांस के लोगों को सम्प्चुअरी कानूनों का पालन करना पड़ता था। इन कानूनों द्वारा समाज के निम्न वर्ग के व्यवहार को नियंत्रित (ncertclass.in) करने का प्रयास किया गया। फ्रांसीसी समाज के विभिन्न वर्गों के लोग किस प्रकार के वस्त्र पहनेंगे इसका निर्धारण विभिन्न कानूनों द्वारा किया जाता था।
इन कानूनों को सम्प्चुअरी कानून (पोशाक संहिता) कहा जाता था। फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून इस प्रकार थे-

  1. किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर द्वारा यह निर्धारित होता था कि कोई व्यक्ति एक वर्ष में कितने कपड़े खरीद सकता था।
  2. साधारण व्यक्तियों द्वारा कुलीनों जैसे कपड़े पहनने पर पूर्ण पाबंदी थी।
  3. शाही खानदान तथा उनके संबंधी ही बेशकीमती कपड़े (एमइन, फर, रेशम, मखमल अथवा जरी आदि) पहनते थे।
  4. निम्न वर्गों के लोगों को खास-खास कपड़े पहनने, विशेष व्यंजन खाने, खास तरह के पेय (मुख्यतः शराब) पीने और शिकार खेलने की अनुमति नहीं थी।

यथार्थ में ये कानून लोगों के सामाजिक स्तर को प्रदर्शित करने के लिए बनाए गए थे। उदाहरण के लिए रेशम, फर, एर्माइन मखमल, जरी जैसी कीमती वस्तुओं का प्रयोग केवल राजवंश के लोग ही कर सकते थे। अन्य वर्गों के लोग इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे।

प्रश्न 3.
यूरोपीय पोशाक संहिता और भारतीय पोशाक संहिता के बीच दो फर्क बताइए।
उत्तर:
यूरोपीय और भारतीय पोशाक संहिता के बीच दो अंतर निम्नलिखित हैं-

  1. यूरोपीय पोशाक संहिता में तंग वस्त्रों को महत्त्व दिया जाता था जबकि भारतीय पोशाक संहिता में आरामदेह तथा ढीले- ढाले वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाता था।
  2. यूरोपीय पोशाक संहिता कानूनी समर्थन पर आधारित थी, जबकि भारतीय पोशाक संहिता को सामाजिक समर्थन प्राप्त था।
  3. यूरोप के लोग हैट पहनते थे जिसे वे स्वयं से उच्च सामाजिक स्तर के लोगों के सामने सम्मान प्रकट करने के लिए उतारते थे जबकि भारत के लोग अपने को गर्मी से बचाने के लिए पगड़ी पहनते थे और यह सम्मान का सूचक थी। इसे इच्छानुसार बार-बार नहीं उतारा जाता था।

प्रश्न 4.
1805 में अंग्रेज अफसर बेंजमिन होइन ने बंगलोर में बनने वाली चीजों की एक सूची बनाई थी, जिसमें निम्नलिखित उत्पाद भी शामिल थे-

  • अलग-अलग किस्म और नाम वाले जनाना कपड़े।
  • मोटी छींट।
  • मखमल।
  • रेशमी कपड़े।

बताइए कि बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में इनमें से कौन-कौन से किस्म के कपड़े प्रयोग से बाहर चले गए होंगे, और क्यों?
उत्तर:
20वीं सदी के प्रारंभिक देशकों में इनमें से रेशमी और मखमल के कपड़ों का प्रयोग सीमित हो गया होगा क्योंकि-

  1. यह कपड़े यूरोपीय कपड़ों की तुलना में बहुत महंगे थे।
  2. स्वदेशी आंदोलन ने लोगों में रेशमी वस्त्रों का त्याग करने को प्रेरित किया।
  3. इस समय तक इंग्लैण्ड के कारखानों में बना सूती कपड़ा भारत के बाजारों में बिकने लगा था। यह कपड़ा देखने में सुंदर, हल्का व सस्ता था।

प्रश्न 5.
उन्नीसवीं सदी के भारत में औरतें परंपरागत कपड़े क्यों पहनती रहीं जबकि पुरुष पश्चिमी कपड़े पहनने लगे थे? इससे समाज में औरतों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
19वीं सदी में भारत में केवल उन्हीं उच्च वर्गीय भारतीयों ने पश्चिमी कपड़े पहनना आरंभ किया जो अंग्रेजों के संपर्क में आए थे। साधारण भारतीय समुदाय इस काल में परंपरागत भारतीय वस्त्रों को ही पहनता था। हमारा समाज मुख्यतः पुरुष प्रधान है और महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे पारिवारिक सम्मान को बनाए रखें। उनसे सुशील एवं अच्छी गृहिणी बनने की अपेक्षा की जाती थी। वे पुरुषों जैसे वस्त्र (ncertclass.in) नहीं पहन सकती थीं और इसलिए, उन्होंने पारंपरिक परिधान पहनना जारी रखा। यह सीधे तौर पर महिलाओं को समाज में निम्न दर्जा हासिल होने का सूचक है। इस काल में साधारण महिलाओं की सामाजिक स्थिति घरेलू जिम्मेदारियों के निर्वहन तक ही सीमित थी परंतु उच्च वर्गीय महिलाएँ शिक्षित होने के साथ-साथ राजनीति तथा समाजसेवा जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों से जुड़ी हुई थीं।

प्रश्न 6.
विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि महात्मा गाँधी ‘राजद्रोही मिडिल टेम्पल वकील से ज्यादा कुछ नहीं हैं और ‘अधनंगे फकीर का दिखावा कर रहे हैं। चर्चिल ने यह वक्तव्य क्यों दिया और इससे महात्मा गाँधी की पोशाक की प्रतीकात्मक शक्ति के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
इस समय महात्मा गाँधी की छवि भारतीय जनता में एक ‘महात्मा’ एवं मुक्तिदाता के रूप में उभर रही थी। गाँधी जी की वेशभूषा सादगी, पवित्रता और निर्धनता का प्रतीक थी जो भारतीय जनता के विचारों और स्थिति को प्रतिबिम्बित करती थी। इस कारण महात्मा गाँधी की पोशाक की प्रतीकात्मक शक्ति चर्चिल के साम्राज्यवाद का विरोध करती हुई प्रतीत हुई और उन्होंने महात्मा गाँधी के विषय में प्रश्नगत् टिप्पणी की।

प्रश्न 7.
समूचे राष्ट्र को खादी पहनाने का गाँधीजी का सपना भारतीय जनता के केवल कुछ हिस्सों तक ही सीमित क्यों रहा?
उत्तर:
प्रत्येक भारतीय को खादी के वस्त्र पहनाने का आँधीजी का स्वप्न कुछ हिस्सों तक सीमित रहने के निम्नलिखित कारण थे-

  1. भारत का उच्च अभिजात्य वर्ग मोटी खादी के स्थान पर हल्के व बारीक कपड़े पहनना पसंद करता था।
  2. अनेक भारतीय पश्चिमी शैली के वस्त्रों को (ncertclass.in) पहनना आत्मसम्मान का प्रतीक मानते थे।
  3. सफेद रंग की खादी के कपड़े महंगे थे, तथा उनका रख-रखाव भी कठिन था, जिसके कारण निम्न वर्ग के मेहनतकश लोग इसे पहनने से बचते थे। इसलिए महात्मा गाँधी के विपरीत बाबा साहब अम्बेडकर जैसे अन्य राष्ट्रवादियों ने पाश्चात्य शैली का सूट पहनना कभी नहीं छोड़ा। सरोजनी नायडू और कमला नेहरू जैसी महिलाएँ भी हाथ से बुने सफेद, मोटे कपड़ों की जगह रंगीन व डिजाइनदार साड़ियाँ पहनती थीं।

अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न (Extra Important Questions)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ब्रह्मिका साड़ी देश के किस भाग में अधिक लोकप्रिय थी?
उत्तर:
यह साड़ी प्रमुख रूप से बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय थी।

प्रश्न 2.
रवीन्द्रनाथ टैगोर किस पोशाक को राष्ट्रीय पोशाक के रूप में डिजाइन करना चाहते थे?
उत्तर:
वे हिन्दू और मुसलमान दोनों प्रमुख समुदायों के मेल से पोशाक डिजाइन करना चाहते थे, जिसमें बटनदार लंबा कोट पुरुषों के लिए सबसे उपयुक्त पोशाक थी।

प्रश्न 3.
महात्मा गाँधी ने लुंगी-कुर्ता पहनने का प्रयोग कब शुरू किया?
उत्तर:
1913 ई० में डरबन (दक्षिण अफ्रीका) में महात्मा गाँधी ने पहली बार यह परिधान धारण किया।

प्रश्न 4.
फ्रांस में सम्प्चुअरी कब से कब तक लागू रहे?
उत्तर:
फ्रांस में सम्प्चुअरी कानून 1294 ई0 से 1789 ई0 तक प्रभावी रहा।

प्रश्न 5.
विक्टोरियाई समाज में महिलाओं की स्थिति बताइए। उत्तर- विक्टोरियाई समाज में बचपन से ही महिलाओं को आज्ञाकारी, खिदमती, सुशील तथा दब्बू होने की शिक्षा दी जाती थी। प्रश्न 6. पादुका सम्मान से क्या आशय है?
उत्तर:
अंग्रेजों की ऐसी सोच थी कि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान में घुसने से पहले जूते उतारते हैं, इसलिए किसी भी सरकारी संस्था में प्रवेश करने से पहले उन्हें जूते उतारने चाहिए। इस नियम को ‘पादुका सम्मान के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 7.
1870 ई0 के दशक में अमेरिका में पोशाक सुधार के समर्थकों के क्या विचार थे?
उत्तर:

  1. कपड़ों को सरल बनाया जाए।
  2. कार्सेट का परित्याग किया जाए।
  3. स्कर्ट की लंबाई छोटी की जाए।

प्रश्न 8.
त्रावणकोर रियासत की शनार जाति पर लागू प्रतिबन्धों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. ऊँची जाति वालों के सामने शनार स्त्री-पुरुष शरीर के ऊपरी भाग को नहीं ढंक सकते थे।
  2. शनार लोग सोने के आभूषण नहीं पहन सकते थे।
  3. शंनार लोग जूते नहीं पहन सकते थे।
  4. शनार लोग छतरी लेकर नहीं चल सकते थे।

प्रश्न 3.
20वीं सदी की शुरुआत में कृत्रिम रेशों से बने कपड़ों की माँग क्यों बढ़ गयी थी?
उत्तर:
ये कपड़े पूर्व प्रचलित कपड़ों की तुलना में सस्ते, हल्के, आरामदायक होते थे। इन कपड़ों को पहमनी और साफ करना आसान था।

प्रश्न 10.
दकियानूसी वर्ग के लोग क्यों पोशाक सुधार का विरोध कर रहे थे?
उत्तर:
उनका ऐसा मानना था कि इससे महिलाओं की शालीनता, खूबसूरती और जनानापन समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 11.
सम्प्चुअरी कानूनों के अंतर्गत राजा-रजवाड़े किस तरह की पोशाक पहन सकते थे?
उत्तर:
इस कानून के अन्तर्गत राजा-रजवाड़े एर्माइन, रेशम, फर, मखमल या जरी की बनी पोशाक ही पहन सकते थे।

प्रश्न 12.
विश्व युद्धों के कारण महिला परिधानों में आए किन्हीं दो बदलावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विश्व युद्धों के कारण महिला परिधानों में आए दो बदलाव –

  1. यूरोप में औरतों ने जेवर और बेशकीमती कपड़े पहनने छोड़ दिए।
  2. चटख रंगों के स्थान पर हल्के रंग के कपड़े पहने जाने लगे।

प्रश्न 13.
ब्रिटेन में नई सामग्री से नई प्रौद्योगिकी ने किस तरह के सुधार लाने में सहायता की?
उत्तर:
17वीं सदी से पहले फ्लैक्स, लिनेन या ऊन से बने बहुत कम कपड़े प्रयोग में लाए जाते थे। किंतु 1600 ई. के बाद भारत के साथ व्यापार के चलते सस्ती व रखरखाव में आसान भारतीय छींट यूरोप लाई गई। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में अधिकाधिक लोगों की सूती कपड़ों तक पहुँच हो गई। बीसवीं (ncertclass.in) सदी के प्रारंभ तक सस्ते, टिकाऊ एवं रखरखाव तथा धुलाई में आसान कृत्रिम रेश से बने कपड़े प्रयोग किए जाने लगे।

प्रश्न 14.
1830 के दशक में महिला पत्रिकाओं ने पारंपरिक वस्त्रों के पहनने से किस तरह के नकारात्मक प्रभावके बारे में बतलाया?
उत्तर:
महिला पत्रिकाओं ने बताना शुरू कर दिया कि तंग लिबास व कॉर्सेट पहनने से महिलाओं में विभिन्न तरह की बीमारियाँ और विरूपताएँ आ जाती हैं। ऐसे पहनावे जिस्मानी विकास में बाधा पहुँचाते हैं, इनसे रक्त प्रवाह भी अवरुद्ध होता है। मांसपेशियाँ अविकसित रह जाती हैं और रीढ़ झुक जाती है।

प्रश्न 15.
इंग्लैण्ड की लड़कियों को बचपन में क्या शिक्षा दी जाती थी?
उत्तर:
इंग्लैण्ड की लड़कियों को बचपन में घर व स्कूल में यह शिक्षा दी जाती थी कि पतली कमर रखना उनका नारी सुलभ कर्तव्य है। सहनशीलता स्त्रीत्व का आवश्यक गुण है। आकर्षक व स्त्रियोचित दिखने के लिए उनका कॉर्सेट पहनना आवश्यक था। इसके लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात मानी जाती थी।

प्रश्न 16.
जेकोबिन क्लब्ज़ के सदस्य स्वयं को क्या कहते थे?
उत्तर:
जेकोबिन क्लब्ज के लोग स्वयं को सेन्स क्लोट्टीज कहते थे।

प्रश्न 17.
इंग्लैण्ड में नेशनल डेस सोसाइटी’ की स्थापना कब की गयी?
उत्तर:
इंग्लैण्ड में सन् 1881 में नेशनल ड्रेस सोसाइटी की स्थापना की गयी।

प्रश्न 18.
स्वदेशी आंदोलन ने किस बात पर विशेष बल दिया?
उत्तर:
भारत में बने माल का अधिक-से-अधिक देशवासियों द्वारा प्रयोग और विदेशी माल का बहिष्कार।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय पहनावे पर स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव बताइए।
उत्तर:
भारत में 20वीं शताब्दी के प्रथम दशक में बंगाल विभाजन के विरोधस्वरूप देश भर में स्वदेशी को अपनाने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने के निमित्त एक जन-आंदोलन आरंभ हुआ। इस आंदोलन के मूल में वस्त्रों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सस्ते और हल्के ब्रिटिश कपड़ों के प्रचलन के कारण बड़ी संख्या में भारतीय बुनकर बेरोजगार हो गए थे। जब लॉर्ड कर्जन ने 1905 ई० में बंगाल को विभाजित करने का फैसला किया तो ‘बंग-भंग की प्रतिक्रिया में स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा। देशवासियों से अपील की गई कि वे तमाम तरह के विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें और माचिस तथा सिगरेट जैसी चीजों को बनाने के लिए खुद उद्योग लगाएँ। खादी का इस्तेमाल देशभक्ति का कर्तव्य बन गया। महिलाओं से अनुरोध किया गया कि रेशमी कपड़े व काँच की चूड़ियों को फेंक दें और शंख की चूड़ियाँ पहनें। हथकरघे पर बने मोटे कपड़े को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक प्रयास किए गए।

प्रश्न 2.
अंग्रेजों ने भारत पर राजनैतिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए अपने कपड़ा उद्योग को सुधारने के लिए किस प्रकार प्रयास किया?
उत्तर:
अंग्रेज सर्वप्रथम भारत में वस्त्रों को व्यापार करने के लिए आए थे। 17वीं शताब्दी तक विश्व के कुल वस्त्र उत्पादन का एक चौथाई भारत में होता था। किन्तु इंग्लैण्ड में हुई औद्योगिक क्रान्ति ने कताई और बुनाई का मशीनीकरण कर दिया। इसके फलस्वरूप कच्चे माल के रूप में कपास और नील (ncertclass.in) की माँग बढ़ गयी। परिणामस्वरूप विश्व बाजार में भारत की स्थिति बदल गयी। वस्त्र निर्यातक भारत अब कच्चे माल का निर्यातक बन गया।
अंग्रेजों ने भारत पर राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए इसका दो तरीके से इस्तेमाल किया-

  1. वे भारतीय किसानों को नील जैसी फसल की खेती के लिए बाध्य कर पाए और अंग्रेजों द्वारा बनाया गया महीन वे सस्ता कपड़ा भारत में निर्मित मोटे कपड़े का स्थान लेने लगा।
  2. भारत पर राजनीतिक हुकूमत के सहारे ब्रिटेन ने भारतीय बाजार में सस्ते व मिल में बने हुए बारीक वस्त्र पेश किए।
    इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय वस्त्रों के माँग के अभाव में भारतीय बुनकर बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए। मुर्शिदाबाद, मछलीपट्टनम् और सूरत जैसे-प्रमुख सूती वस्त्र केन्द्रों का पतन हो गया जबकि इसी दौरान ब्रिटिश कपड़ा उद्योग केन्द्र का तेजी से विकास हुआ।

प्रश्न 3.
विक्टोरिया कालीन समाज में महिलाओं व पुरुषों की वस्त्र शैलियों की भिन्नता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ब्रिटेन में महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों की शैलियों में पर्याप्त भिन्नता थी। इस काल में महिलाओं को बचपन से सुशील और आज्ञाकारी होने की शिक्षा दी जाती थी। आदर्श नारी उसे माना जाता था जो तमाम दुःख दर्द को सह कर भी चुप रहे। जहाँ पुरुषों से धीर-गंभीर, बलवान, आजाद और आक्रामक होने की उम्मीद की जाती थी वहीं औरतों को छुईमुई, निष्क्रिय व दब्बू माना जाता था। पहनावे के रस्मो-रिवाज में भी यह अंतर स्पष्ट रूप से झलकता था। बचपन से ही लड़कियों को सख्त फीतों से बँधे कपड़ों-स्टेज में (ncertclass.in) कसकर बाँधा जाता था जिससे उनका बदन इकहरा रहे। थोड़ी बड़ी होने पर लड़कियों को बदन से चिपके कॉर्सेट (चुस्त भीतरी कुर्ती) पहनने होते थे। टाइट फीतों से कसी पतली कमर वाली महिलाओं को आकर्षक, शालीन व सौम्य समझा जाता था। इस तरह विक्टोरियाई महिलाओं की अलग छवि बनाने में पोशाक ने अहम् भूमिका निभाई।

प्रश्न 4.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोपीय महिलाओं के परिधान में क्या परिवर्तन आए?
उत्तर:
प्रथम विश्व युद्ध (1914) के शुरू होने के साथ ही महिलाओं के पारंपरिक महिला परिधानों की समाप्ति हो गयी।
इन परिवर्तनों के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-

  1. उन्नीसवीं शताब्दी तक बच्चो के नए स्कूल सादे वस्त्रों पर बल देने और साज-श्रृंगार को निरुत्साहित करने लगे। व्यायाम और खेलकूद लड़कियों के पाठ्यक्रम का अंग बन गए। खेल के समय लड़कियों को ऐसे वस्त्र पहनने पड़ते थे जो इनकी गतिविधि में बाधा न डालें। जब वे काम पर जाती थीं तो वे आरामदेह और सुविधाजनक वस्त्र पहनती थीं।
  2. अनेक यूरोपीय महिलाओं ने आभूषणों तथा विलासमय वस्त्रों का परित्याग कर दिया। फलस्वरूप सामाजिक बंधन टूट गए और उच्च वर्ग की महिलाएँ अन्य वर्गों की महिलाओं के समान दिखाई देने लगीं।
  3. प्रथम विश्व युद्ध की अवधि में अनेक व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण वस्त्रे छोटे हो गए। 1917 ई0 तक ब्रिटेन में 7,00,000 महिलाएँ गोला-बारूद के कारखानों में काम करने लगीं। कामगर महिलाएँ ब्लाउज, पतलून के अतिरिक्त स्कार्फ पहनती थीं जो बाद में खाकी (ncertclass.in) ओवरआल और टोपी में परिवर्तित हो गया। स्कर्ट की लंबाई कम हो गई। शीघ्र ही पतलून पश्चिमी महिलाओं की पोशाक का अनिवार्य अंग बन गई जिससे उन्हें चलने-फिरने में अधिक आसानी हो गई।
  4. भड़कीले रंगों का स्थान सादे रंगों ने ले लिया। अनेक महिलाओं ने सुविधा के लिए अपने बाल छोटे करवा लिए।

प्रश्न 5.
भारत में स्वदेशी आंदोलन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लॉर्ड कर्जन ने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति बढ़ते विरोध को नियंत्रित करने के लिए बंगाल विभाजन का निर्णय किया। बंगाल विभाजन के इस कदम ने भी भारत में स्वेदशी आंदोलन को बढ़ावा दिया। लोगों ने भारत में प्रचलित प्रत्येक प्रकार के विदेशी सामान का विरोध और बहिष्कार करना आरंभ किया। उन्होंने खादी का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया, यद्यपि यह मोटी, महँगी तथा रखरखाव में कठिन होती थी। उन्होंने माचिस एवं सिगरेट आदि सामानों के लिए अपने स्वयं के उद्योग स्थापित कर दिए। खादी का प्रयोग देशभक्ति के लिए कर्तव्य बन गया। महिलाओं ने अपने रेशमी कपड़े व काँच की चूड़ियाँ फेंक दीं और सादी शंख की चूड़ियाँ धारण करने लगीं। खुरदरे घर में बनाए गए कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए गीतों एवं कविताओं के माध्यम से इनका गुणगान किया गया। इसकी खामियों के बावजूद स्वदेशी के तजुर्बे ने महात्मा गाँधी को यह महत्त्वपूर्ण सीख अवश्य दी कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतीकात्मक हथियार के रूप में कपड़े की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

प्रश्न 6.
शनार महिलाओं के सम्मुख उपस्थित समस्या और उनका समाधान प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
दक्षिणी त्रावणकोर के नायर जमींदारों के यहाँ काम करने वाली शनार (नाडर) ताड़ी निकालने वाली एक जाति थी। नीची जाति का माने जाने के कारण इन लोगों को छतरी लेकर चलने, जूते या सोने के गहने पहनने की मनाही थी। नीची जाति की महिलाओं व पुरुषों से अपेक्षा की जाती थी कि स्थानीय रीति-रिवाज के अनुसार ऊँची जाति वाले लोगों के सामने कभी भी ऊपरी शरीर कोई नहीं ढंकेगा।1820 ई0 के दशक में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में आकर धर्मांतरित शनार महिलाओं ने अपने तन को ढंकने के लिए उच्च जाति (ncertclass.in) की महिलाओं की तरह सिले हुए ब्लाउज व कपड़े पहनना प्रारंभ कर दिया। उच्च जाति के लोगों ने शनार महिलाओं के लिए बहुत सी मुसीबतें खड़ी कीं लेकिन शनार महिलाओं ने कपड़े पहनने के तरीके में बदलाव नहीं किया। अंत में त्रावणकोर सरकार द्वारा एक घोषणा द्वारा शनार महिलाओं–चाहे हिंदू हों या ईसाई – को जैकेट आदि से ऊपरी शरीर को अपनी इच्छानुसार ढंकने की अनुमति मिल गई, लेकिन ठीक वैसे ही नहीं जैसे ऊँची जाति की महिलाएँ ढंकती थीं।

प्रश्न 7.
ब्रिटेन में 1915 ई० से पहले ब्रिटेन की महिलाओं के वस्त्रों में होने वाले प्रमुख परिवर्तन कौन-कौन से थे?
उत्तर:
इस अवधि में महिलाओं के परिधानों में निम्नलिखित परिवर्तन हुए-

  1. 1600 के बाद भारत के साथ व्यापार के कारण भारत की सस्ती, सुंदर तथा आसान रख-रखाव वाली भारतीय छींट इंग्लैंड (ब्रिटेन) पहुँचने लगी। अनेक यूरोपीय महिलाएँ इसे आसानी से खरीद सकती थीं और पहले से अधिक वस्त्र जुटा सकती थीं।
  2. 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के समय बड़े पैमाने पर सूती वस्त्रों का उत्पादन होने लगा। वह भारत सहित विश्व के अनेक भागों को सूती वस्त्रों का निर्यात भी करने लगा। इस प्रकार सूती कपड़ा बहुत बड़े वर्ग को आसानी से उपलब्ध होने लगा।
    20वीं शताब्दी के आरंभ तक कृत्रिम रेशों से बने वस्त्रों को और अधिक सस्ता कर दिया। इनकी धुलाई तथा उनको संभालना अधिक आसान था।
  3. 17वीं शताब्दी से पहले ब्रिटेन की अति साधारण महिलाओं के पास बहुत ही कम वस्त्र होते थे। ये फ्लैक्स, लिनिन तथा ऊन के बने होते थे जिनकी धुलाई कठिन थी इसलिए उन्होंने उन वस्त्रों को अपनाना आरंभ कर दिया जिनकी धुलाई तथा रख-रखाव अपेक्षाकृत सरल था।
  4. 1870 ई0 के दशक के अंतिम वर्षों में भारी भीतरी वस्त्रों का धीरे-धीरे त्याग कर दिया गया। अब वस्त्र पहले से अधिक हल्के, अधिक छोटे और अधिक सादे हो गए। फिर भी 1914 ई0 तक वस्त्रों की लंबाई में कमी नहीं आई। परंतु 1915 तक स्कर्ट की लंबाई एकाएक कम हो गई। अब यह घुटनों तक पहुँच गई थी।

प्रश्न 8.
विभिन्न भारतवासियों द्वारा राष्ट्रीय पोशाक का डिजाइन तैयार करने के प्रयासों का विवरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
भारत में 19वीं सदी के अंत तक राष्ट्रीयता की भावना प्रबल रूप से बलवती हो उठी थी। ऐसे में अनेक भारतवासी राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति करने वाले सांस्कृतिक प्रतीकों के सृजन को तत्पर हो गए। इसी काल खण्ड में राष्ट्रीय पोशाक की खोज राष्ट्र की पहचान को प्रतीकात्मक ढंग से परिभाषित करने की प्रक्रिया का एक हिस्सा बन गयी। विभिन्न भारतवासियों द्वारा राष्ट्रीय पोशाक का डिजाइन तैयार करने के लिए अनेक प्रयास किए गए। 1870 ई0 के दशक में टैगोर खानदान ने भारतीय पुरुषों और महिलाओं के लिए राष्ट्रीय पोशाक (ncertclass.in) डिजाइन करने का प्रयास किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सुझाव प्रस्तुत किया कि भारतीय व यूरोपीय पोशाक का मेल करने के बजाय हिन्दू और मुसलमान पोशाक, का मेल करके भारतीय राष्ट्रीय पोशाक निर्मित की जाए। इस तरह बटनदार लंबा कोट-पुरुषों के लिए सबसे उपयुक्त माना गया। इसी तरह पृथक्-पृथक् क्षेत्रों की पारंपरिक वेशभूषा से प्रेरणा ली गयी।

प्रश्न 9.
‘सम्प्चुअरी कानूनों के खात्में का यह मतलब कत्तई नहीं था कि यूरोपीय देशों में हर कोई एक जैसी पोशाक पहनने लगा हो।’ इस कथन से क्या अर्थ निकलता है?
उत्तर:
सम्प्चुअरी कानूनों की समाप्ति के बाद भेदभाव मात्र कानूनी रूप से समाप्त किए गए थे। लेकिन इसका यह आशय कदापि नहीं था कि यूरोपीय देशों में प्रत्येक व्यक्ति एक जैसी पोशाक पहनने लगा हो। फ्रांसीसी क्रान्ति ने लोगों के सम्मुख समानता का प्रश्न उपस्थित किया तथा कुलीन विशेषाधिकारों तथा उनका समर्थन करने वाले कानूनों को समाप्त कर दिया। लेकिन सामाजिक वर्गों के बीच अंतर पूर्ववत् जारी रहा। स्पष्ट है कि गरीब न तो अमीरों जैसे कपड़े पहन सकते थे न ही वैसा खाना खा सकते थे। फर्क यह था कि अगर वे ऐसा करना चाहते तो अब कानून बीच में नहीं आने वाला था। इस तरह अमीर-गरीब की परिभाषा, उनकी वेशभूषा सिर्फ उनकी आमदनी पर निर्भर हो गई थी न कि सम्प्चुअरी कानूनों के द्वारा निर्धारित की जाती थी।

दीर्थ उतरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
दो विश्व युद्धों के दौरान महिलाओं की पोशाकों में आए अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
दो विश्व युद्धों के दौरान महिलाओं की पोशाक में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हुए, जिन्हें निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है-

  1. पैंट पाश्चात्य महिलाओं की पोशाक का अहम् हिस्सा बन गई।
  2. सुविधा के लिए महिलाओं ने बाल कटवाना प्रारंभ कर दिया।
  3. बीसवीं सदी तक कठोर और सादगी-भरी जीवन-शैली गंभीरता और प्रोफेशनले अंदाज का पर्याय बन गयी।
  4. बच्चों के नए विद्यालयों में सादी पोशाक पर जोर दिया गया और तड़क-भड़क को हतोत्साहित किया गया।
  5. बहुत-सी यूरोपीय महिलाओं ने आभूषण (ncertclass.in) एवं कीमती परिधान पहनना बंद कर दिया।
  6. उच्च वर्गों की महिलाएँ अन्य वर्गों की महिलाओं से मिलने-जुलने लगीं जिससे सामाजिक अवरोधों का पतन हुआ।
  7. प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के मध्य इंग्लैण्ड में 70,000 से अधिक महिलाएँ आयुध कारखानों में काम करती थीं और उन्हें स्कार्फ के साथ ब्लाउज एवं पैंट की कामकाजी वेशभूषा के साथ अन्य चीजें पहननी पड़ती थीं।
  8. हल्के रंगों के वस्त्र पहने जाते थे। इस प्रकारे कपड़े सादे होते गए।
  9. स्कर्ट छोटी होती चली गई।

प्रश्न 2.
फ्रांसिसी क्रान्ति के बाद परिधान संहिता में क्या परिवर्तन हुए?
उत्तर:
सन् 1789 में फ्रांस में हुई क्रान्ति ने विभिन्न वर्गों के बीच व्याप्त पहनावे के अंतर को लगभग समाप्त कर दिया।
इस परिवर्तन का विवरण इस प्रकार है-

  1. लाल टोपी को स्वतंत्रता की निशानी के रूप में पहना जाने लगा।
  2. कीमती वस्त्रों के स्थान पर सादगीपूर्ण वस्त्रों का प्रचलन आरंभ हुआ, जिससे समानता की भावना प्रदर्शित होती थी।
  3. तिरछी टोपियाँ (कॉकेड) और लंबी पतलून भी प्रचलन में आ गई थी। फ्रांसिसी क्रांति के उपरांत यद्यपि परिधान संबंधी कानूनों का अंत हो गया था परंतु आर्थिक विभिन्नता के कारण अब भी निम्न वर्ग उच्च वर्गों के समान वस्त्र नहीं पहन सकता था।
  4. इस परिवर्तन का आरंभ जैकोबिन क्लब के सदस्यों द्वारा हुआ जब उन्होंने कुलीन वर्ग के फैशनदार घुटन्ना पहनने वाले लोगों से अलग दिखने के लिए धारीदार लंबी पतलून पहनने का निर्णय किया। इन सदस्यों को सौं कुलॉत’ (बिना घुटने वाले) कहा जाता था।
  5. महिलाओं और पुरुषों ने ढीले-ढाले आरामदेह वस्त्रों को पहनना आरंभ कर दिया।
  6. वस्त्रों के रंगों के चयन में फ्रांसिसी तिरंगों के तीनों रंगों (नीला, सफेद, लाल) को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। इन्हें पहनना देशभक्ति का पर्याय बन गया।

प्रश्न 3.
‘पादुका सम्मान’ विवाद क्या था?
उत्तर:
ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा 19वीं सदी की शुरुआत में शिष्टाचार की पालन करते हुए, शासन कर रहे देशी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतार कर जाने की परंपरा प्रचलित थी तत्कालीन कुछ अंग्रेज अधिकारी भारतीय वेशभूषा भी धारण करते थे। लेकिन सन् 1830 में सरकारी समारोहों में उन्हें भारतीय परिधान धारण करके जाने से मनाकर दिया गया। दूसरी ओर भारतीयों को भारतीय वेशभूषा ही धारण करनी होती थी। गवर्नर लार्ड एमहर्ट (1824-1828) इस बात पर दृढ़ रहा कि उसके सम्मुख उपस्थित होने वाले भारतीय सम्मान प्रदर्शित करने के लिए नंगे पाँव आए, लेकिन उसने इस नियम को कठोरतापूर्वक लागू नहीं किया।

लेकिन लॉर्ड डलहौजी ने भारत का गवर्नर जनरल बनने पर इस नियम को दृढ़तापूर्वक लागू किया। अब भारतीयों को किसी भी सरकारी संस्था में प्रविष्ट होते समय जूते उतारने पड़ते थे। इस रस्म को ‘पादुका सम्मान’ कहा गया। जो लोग यूरोपीय परिधान धारण करते थे, उन्हें इस नियम से छूट प्राप्त थी। सरकारी सेवा में कार्यरत बहुत से भारतीय इस नियम से स्वयं को पीड़ित महसूस करने लगे थे। | 1862 ई० में (ncertclass.in) सूरत की फौजदारी अदालत में लगाने आँकने वाले के पद पर कार्यरत मनोकजी कोवासजी एन्टी ने सत्र न्यायाधीश की अदालत में जूते उतारने से इन्कार कर दिया। अदालत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई और उन्होंने विरोध जताते हुए बंबई के गवर्नर को पत्र लिखा।

इसके जवाब में अंग्रेजों का कहना था कि चूंकि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान या घर में घुसने से पहले जूते उतारते ही हैं, तो वे अदालत में भी वैसा ही क्यों न करें। इस पर भारतीयों ने कहा कि पवित्र जगहों या घर पर जूते उतारने के दो कारण थे। घर पर वे धूल या गंदगी अंदर न जाने पाए इसलिए जूते उतारते थे और पवित्र स्थानों पर वे देवी-देवताओं के प्रति आदर प्रकट करने के लिए जूते उतारते थे और उनका रिवाज था। किन्तु अदालत जैसी सार्वजनिक जगह घरों से अलग थे।

प्रश्न 4.
भारतीय शैली के कपड़ों के प्रति अंग्रेजों की सोच स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में भारतीय लोग स्वयं को गर्मी के ताप से बचाने के लिए पगड़ी बाँधते थे। पगड़ी को इच्छानुसार कहीं भी उतारा नहीं जाता था। अंग्रेज लोग पगड़ी की जगह हैट पहनते थे जो कि उनके सामाजिक स्तर से ऊपर के लोगों के सामने सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उतारना पड़ता था। इस सांस्कृतिक विविधता ने भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी थी।

ब्रिटिश लोग प्रायः इस बात से अप्रसन्न होते थे कि भारतीय लोग औपनिवेशिक अधिकारियों के सामने अपनी पगड़ी नहीं उतारते। दूसरी ओर कुछ भारतीय राष्ट्रीय अस्मिता को जताने के लिए जान-बूझकर पगड़ी पहनते। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा शिष्टाचार का पालन करते हुए, शासन कर रहे देशी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतारकर जाने की परंपरा थी। 1824-1828 के बीच गवर्नर जनरल एमहर्ट इस बात पर अड़ा रहा कि उसके सामने पेश होने वाले हिंदुस्तानी आदर प्रदर्शित करने के लिए नंगे पाँव आएँ, लेकिन इसको सख्ती से लागू नहीं किया गया। जब लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बना तो ‘पादुका सम्मान की यह रस्म सख्त हो गई और अब भारतीयों को किसी भी सरकारी संस्था में दाखिल होते समय जूते निकालने पड़ते थे। जो लोग यूरोपीय पोशाक पहनते थे उन्हें इस नियम से छूट मिली हुई थी। सरकारी सेवा में कार्यरत बहुत से भारतीय इस नियम से स्वयं को त्रस्त महसूस करने लगे।

1862 ई० में सूरत की फौजदारी अदालत में लगान आँकने वाले के पद पर कार्यरत मनोकजी कोवासजी एन्टी ने सत्र न्यायाधीश की अदालत में जूते उतारने से इन्कार कर दिया। अदालत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई और उन्होंने विरोध जताते हुए बंबई के गवर्नर (ncertclass.in) को पत्र लिखा।
इसके जवाब में अंग्रेजों का कहना था कि चूंकि भारतीय किसी भी पवित्र स्थान या घर में घुसने से पहले जूते उतारते ही हैं, तो वे अदालत में भी वैसा ही क्यों न करें। किन्तु भारतीय उनके इस तर्क को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।

प्रश्न 5.
सफ्रेज आन्दोलन व वस्त्र सुधार को संक्षेप में प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
1830 ई0 के दशक तक इंग्लैण्ड में महिलाओं ने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ किया। अब महिलाओं ने कॉर्सेट पहनने का विरोध करना आरंभ किया। वोल्ड आंदोलन के गति पकड़ने के साथ ही पोशाक-सुधार की मुहिम चल पड़ी। महिला पत्रिकाओं ने महिलाओं को इस परिप्रेक्ष्य में जागरुक करना आरंभ किया कि तंग वस्त्रों और कॉर्सेट पहनने
से महिलाओं को कौन-कौन सी शारीरिक और सौन्दर्यपरक विद्रूपताएँ आ जाती हैं।
इस पहनावे से शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया-

  1. शरीर का प्राकृतिक रूप से विकास नहीं हो पाता है।
  2. रक्त प्रवाह बाधित होता है।
  3. रीढ़ की हड्डी झुक जाती है।
  4. मांसपेशियाँ अविकसित रह जाती हैं।

इंग्लैण्ड में शुरू हुए सफ्रेज आंदोलन ने यूरोप के बाहर अमेरिका को भी प्रभावित किया। महिलाओं ने अपने पहनावे से संबंधित समस्याओं को समाज के समक्ष रखना आरंभ कर दिया जैसे-

  1. स्कर्ट बहुत विशाल होते थे जिसके कारण चलने में परेशानी होती थी।
  2. लंबे स्कर्ट फर्श को साफ करते हुए चलते थे जो बीमारी का कारण थे।
  3. यदि पहनावे को आरामदायक बना दिया जाए तो वे भी कमाई कर सकती हैं और स्वतंत्र हो सकती हैं।

महिलाओं की इन माँगों का तीव्र विरोध भी हुआ उनके अनुसार पारंपरिक शैली छोड़ देने से महिलाओं की खूबसूरती, शालीनता तथा अन्य स्त्रियोचित गुणों का अभाव संभव था। इस प्रकार के विरोध के कारण ही महिला परिधानों में इस प्रकार के परिवर्तन प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत ही संभव हो सके।

प्रश्न 6.
भारतीय वस्त्रों एवं महात्मा गाँधी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पोरबन्दर गुजरात में जन्में महात्मा गांधी बचपन में परंपरागत वस्त्र पहनते थे। लेकिन 19 वर्ष की आयु में जब वे कानून की पढ़ाई करने लंदन गए तो वे पश्चिमी पोशाकों की ओर आकृष्ट हुए। 1890 ई० के दशक में दक्षिण अफ्रीका में वकालत करने तक वे कोट-पैंट व पगड़ी पहनते थे। 1913 ई० में दक्षिण अफ्रीकी सरकार के विरोध में जब उन्होंने वहाँ भारतीय कोयला खदान मजदूरों का समर्थन किया तो (ncertclass.in) उन्हें पश्चिमी वस्त्र व्यर्थ प्रतीत हुए और उन्होंने लुंगी-कुर्ता पहनने का प्रयोग आरंभ किया। साथ ही विरोध करने के लिए खड़े हो गए।

1915 ई. में भारत वापसी पर उन्होंने काठियावाड़ी किसान का रूप धारण कर लिया। अंततः 1921 में उन्होंने अपने शरीर पर केवल एक छोटी-सी धोती को अपना लिया। गाँधीजी इन पहनावों को जीवन भर नहीं अपनाना चाहते थे। वह तो केवल एक या दो महीने के लिए ही किसी भी पहनावे को प्रयोग के रूप में अपनाते थे। परंतु शीघ्र ही उन्होंने अपने इस पहनावे को गरीबों के पहनावे का रूप दे दिया। इसके बाद उन्होंने अन्य वेशभूषाओं का त्याग कर दिया और जीवन भर एक छोटी सी धोती पहने रखी।

इस वस्त्र के माध्यम से वह भारत के साधारण व्यक्ति की छवि पूरे विश्व में दिखाने में सफल रहे। महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खादी पहनने के लिए बल दिया। उन्होंने देशवासियों को प्रेरित किया कि वे चरखा चलाएँ और स्वयं के बनाए हुए वस्त्र पहनें। उनके लिए खादी शुद्धता, सादगी और राष्ट्रभक्ति का पर्याय थी। उनके प्रयासों से शीघ्र ही पूरे देश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने खादी को अपना लिया और खादी वस्त्र राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गए।

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